जानिए कौन थे महान महर्षि पाणिनि? जिन्हें संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरणीय कहा जाता था, इनके अविष्कारों को जानकार आप भी हो जाएंगे हैरान...
पाणिनी एक महान संस्कृत विद्वान थे, जिन्होंने संस्कृत व्याकरण का विस्तार से अध्ययन किया था और एक महाकाव्य "अष्टाध्यायी" लिखा था। इसे संस्कृत व्याकरण की एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है जो उनके समय से आज तक महत्वपूर्ण है।
अष्टाध्यायी एक विस्तृत व्याकरण ग्रंथ है जिसमें संस्कृत भाषा के विभिन्न विषयों को बहुत विस्तार से वर्णित किया गया है। पाणिनी ने इस ग्रंथ में संस्कृत भाषा की व्याकरणीय सिद्धांतों को विस्तार से वर्णित किया है। इसमें वर्ण, पद, सन्धि, समास, वाक्य आदि के विषयों पर चर्चा होती है।
इस ग्रंथ में पाणिनी ने एक समान वर्ण-धातु प्रणाली का वर्णन किया है, जिसने वर्णों और धातुओं के बीच एक संबंध स्थापित किया है। इस तरह, इस ग्रंथ में वर्णों, धातुओं और पदों के बीच संबंध को विस्तार से बताया गया है जो संस्कृत व्याकरण की एक महत्वपूर्ण आधार है।
पाणिनी जी का अष्टाध्यायी ग्रंथ, संस्कृत भाषा के समझने वालों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में संस्कृत भाषा के नियमों को एक सिद्धांतिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। पाणिनी जी की इस ग्रंथ में प्रस्तुत की गई संस्कृत व्याकरण की समझ से, संस्कृत भाषा के समस्त शब्दों को बनाना, सम्पादन करना और संगठित करना संभव होता है।
इस ग्रंथ में संस्कृत भाषा के वर्ण और धातुओं के बीच संबंध, सन्धि, समास, वाक्य रचना और वाक्य संगठन के नियमों का विस्तार से वर्णन होता है। पाणिनी जी ने एक स्थान पर अधिकतम चर्चा की है जो संस्कृत भाषा के संरचना और व्याकरण को समझने में मदद करती है।
इसके अलावा, पाणिनी जी ने अपनी इस ग्रंथ में कुछ भाषा के उदाहरण भी दिए हैं, जो उस समय की संस्कृत भाषा के विषय में जानकारी देते हैं। इस ग्रंथ के माध्यम से, पाणिनी जी ने संस्कृत भाषा के नियमों को आसानी से समझाये है
आधुनिक भाषा शास्त्र के विकास में भी पाणिनी जी का अष्टाध्यायी ग्रंथ एक महत्वपूर्ण योगदान है। इस ग्रंथ में वर्णित नियमों के आधार पर, आधुनिक भाषा शास्त्र विद्यार्थियों ने विभिन्न भाषाओं के स्वर, व्यंजन और विसर्ग के नियमों को समझा है। इस ग्रंथ की महत्वपूर्णता यह है कि इसने भाषा शास्त्र के विकास में एक नया मोड़ दिया है।
पाणिनी जी ने संस्कृत भाषा के नियमों को उनकी लौकिक प्रयोग की जरूरतों से जुड़ाव देते हुए बताया है। इसके आधार पर, आधुनिक भाषा शास्त्र विद्यार्थियों ने संस्कृत भाषा के नियमों को विभिन्न भाषाओं के अनुसरण के लिए समझना आसान बना दिया है।
इस ग्रंथ के अलावा, पाणिनी जी ने भाषा के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि शब्द रचना, वर्ण और सन्धि को विस्तार से वर्णन किया है। इन पहलुओं को समझने से, आधुनिक भाषा शास्त्र विद्यार्थी विभिन्न भाषाओं के शब्दों के संगठन के नियमों को समझ सकते हैं।
पाणिनी जी की अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में से एक उनकी व्याकरण शिक्षा प्रक्रिया है, जो संस्कृत व्याकरण के शिक्षकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस प्रक्रिया के आधार पर, विद्यार्थियों को व्याकरण के नियमों का समझ करने की सहायता मिलती है।
पाणिनी जी ने व्याकरण शिक्षा प्रक्रिया को तीन भागों में विभाजित किया है। पहला भाग व्याकरण अध्ययन के आधार को स्थापित करता है, जिसमें व्याकरण के नियमों का समझ होता है। दूसरा भाग व्याकरण के नियमों को अपने जीवन में उपयोग में लाने के बारे में है, जैसे कि भाषा के स्वर और व्यंजनों को सही ढंग से उच्चारण करना। तीसरा भाग व्याकरण का अध्ययन के लिए अधिक समय और मेहनत लगाने के बारे में है, जिसमें विद्यार्थी विस्तार से व्याकरण के नियमों का अध्ययन करते हैं और उन्हें अपनी भाषा के स्तर पर उत्तम करने के लिए आवेदन करते हैं।
पाणिनी जी ने अपने ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' में संस्कृत भाषा के लिए व्याकरण के नियम और सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने व्याकरण के नियमों को बहुत सरल और विस्तृत ढंग से वर्णन किया है ताकि व्याकरण का अध्ययन आसान हो सके। अष्टाध्यायी में शब्दों के विभिन्न पहलुओं और प्रत्येक पहलु के समासों, उपसर्गों, प्रत्ययों, समासों और धातुओं के उपयोग से संस्कृत भाषा के नियमों को स्पष्ट किया गया है।
पाणिनी जी ने व्याकरण के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट किया है:
. शब्दों का संघटन: शब्दों को उनके वाक्य में उपयोग के आधार पर संघटित किया जाता है।
. उपसर्गों का प्रयोग: उपसर्गों का उपयोग वाक्य के अर्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है।
. प्रत्ययों का प्रयोग: प्रत्यय शब्दों के अंत में जोड़े जाते हैं और उनका उपयोग शब्द के अर्थ को बदलने के लिए किया जाता है।
. धातुओं का प्रयोग: धातुओं का उपयोग शब्दों के अर्थ को बदलने और उन्हें विभिन्न प्रत्ययों से जोड़ने के लिए किया जाता है।
. संज्ञासमास: इसमें दो शब्दों को एक साथ जोड़कर नए शब्द बनाया जाता है। यह शब्दों का संघटन और उनके अर्थ को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
. तत्पुरुष समास: इसमें दो शब्दों को एक साथ जोड़कर नए शब्द बनाया जाता है, जो शब्दों का वाक्य में उपयोग करने के आधार पर उनके अर्थ को स्पष्ट करता है।
. अव्ययीभाव समास: इसमें दो शब्दों को एक साथ जोड़कर नए शब्द बनाया जाता है, जो अव्ययों का वाक्य में उपयोग करने के आधार पर उनके अर्थ को स्पष्ट करता है।
पाणिनी जी के अष्टाध्यायी ने संस्कृत व्याकरण को समझने में मदद की है और उसके विभिन्न सिद्धांतों और नियमों को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज भी अष्टाध्यायी को एक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में माना जाता है
. उपसर्ग: उपसर्ग शब्दों के आदि में जोड़े जाते हैं जो उनके अर्थ को बदल देते हैं।
. प्रत्यय: प्रत्यय एक छोटा सा शब्द होता है जो शब्दों में जोड़कर नए शब्द बनाता है। इनका उपयोग शब्दों के अर्थ को बदलने और उन्हें विभिन्न विषयों में विभाजित करने के लिए किया जाता है।
. विभक्ति: संस्कृत भाषा में विभक्ति एक महत्वपूर्ण विषय है। इसमें शब्दों को विभिन्न विभक्तियों में विभाजित किया जाता है, जो उनके अर्थ को स्पष्ट करती हैं। संस्कृत में आठ विभक्तियां होती हैं: प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी और सम्बोधन।
संधि: संधि दो शब्दों के मेल को कहते हैं। यह व्याकरण में एक महत्वपूर्ण विषय
है जो शब्दों के मेल के माध्यम से उनके अर्थ को स्पष्ट करता है। इसमें विभिन्न प्रकार होते हैं: वर्णसंधि, विसर्गसंधि, गुणसंधि, यण्तसंधि, अनुनासिकसंधि, स्पर्शसंधि इत्यादि।
. लिंग: संस्कृत भाषा में लिंग शब्द के जीव, पुम् और स्त्री में विभाजित करने को कहते हैं। इससे शब्दों के अर्थ में भेद होता है।
. वचन: वचन शब्द को एक, दो या बहुत के अनुसार विभाजित करने को कहते हैं। इससे शब्दों के अर्थ में भेद होता है।
. क्रिया: क्रिया शब्दों का उपयोग किसी कार्य या क्रिया को दर्शाने के लिए किया जाता है। ये संस्कृत भाषा में बहुत महत्वपूर्ण हैं और अनेक अनुवादों के लिए उपयोगी होते हैं।
. सन्धार्भ: सन्धार्भ एक व्याकरणीय शब्द है जो एक शब्द के अर्थ को बदल देता है। इसे किसी वाक्य में शब्दों को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है।
. पद: संस्कृत भाषा में पद एक छोटा सा शब्द होता है जो वाक्य में किसी अन्य शब्द का अधीन होता है। यह शब्द अनेक तरीकों से वाक्य में उपयोग किया जा सकता है।
. विशेषण: विशेषण एक शब्द होता है जो किसी अन्य शब्द के विशेषता को बताता है।
पाणिनि का जन्म शलातुर नामक ग्राम में हुआ था। जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था। उसे अब लहुर कहते हैं। अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं। और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है। चीनी यात्री युवान्च्वां (७वीं शती) उत्तर-पश्चिम से आते समय शालातुर गाँव में गए थे। पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनि जब बड़े हुए तो उन्होंने व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया।
पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे। उनके ग्रंथों को पढ़कर और उनके परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में यह विचार आया कि उन्हें व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करना चाहिए। पहले तो पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है। दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया। इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गार्ग्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है।
शाकटायन निश्चित रूप से पाणिनि से पूर्व के वैयाकरण थे, जैसा निरुक्तकार यास्क ने लिखा है। शाकटायन का मत था कि सब संज्ञा शब्द धातुओं से बनते हैं। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पाणिनि ने यह की कि उन्होंने स्वयं लोक को अपनी आँखों से देखा और घूमकर लोगों के बहुमुखी जीवन का परिचय प्राप्त करके शब्दों को छाना। इस प्रकार से कितने ही सहस्र शब्दों को उन्होंने इकट्ठा किया।
बीसियों सूत्रों के साथ लगे हुए गणों में गोत्रों के अनेक नाम पाणिनि के "गणपाठ" नामक परिशिष्ट ग्रंथ में हैं। पाणिनि की चौथी सूची भौगोलिक थी। पाणिनि का जन्मस्थान उत्तर पश्चिम में था, जिस प्रदेश को हम गांधार कहते हैं। यूनानी भूगोल लेखकों ने लिखा है कि उत्तर पश्चिम अर्थात् गांधार और पंजाब में लगभग ५०० ऐसे ग्राम थे जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या दस सहस्र के लगभग थी। पाणिनि ने उन ५०० ग्रामों के वास्तविक नाम भी दे दिए हैं जिनसे उनके भूगोल संबंधी गणों की सूचियाँ बनी हैं। ग्रामों और नगरों के उन नामों की पहचान टेढ़ा प्रश्न है, किंतु यदि बहुत परिश्रम किया जाय तो यह संभव है जैसे सुनेत और सिरसा पंजाब के दो छोटे गाँव हैं जिन्हें पाणिनि ने सुनेत्र और शैरीषक कहा है।
पंजाब की अनेक जातियों के नाम उन गाँवों के अनुसार थे जहाँ वह जाति निवास करती थी या जहाँ से उसके पूर्वज आए थे। इस प्रकार निवास और अभिजन (पूर्वजों का स्थान) इन दोनों से जो उपनाम बनते थे वे पुरुष नाम में जुड़ जाते थे क्योंकि ऐसे नाम भी भाषा के अंग थे।
पाणिनि ने पंजाब के मध्यभाग में खड़े होकर अपनी दृष्टि पूर्व और पश्चिम की ओर दौड़ाई। उन्हें दो पहाड़ी इलाके दिखाई पड़े। पूर्व की ओर कुल्लू काँगड़ाँ जिसे उस समय त्रिगर्त कहते थे, पश्चिमी ओर का पहाड़ी प्रदेश वह था जो गांधार की पूर्वी राजधानी तक्षशिला से पश्चिमी राजधानी पुष्कलावती तक फैला था। इसी में वह प्रदेश था जिसे अब कबायली इलाका कहते हैं और जो सिंधु नद के उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त था और जिसके उत्तरी छोर पर दरद (वर्तमान गिलगित) और दक्षिणी छोर पर सौबीर (वर्तमान सिंध) था। पाणिनि ने इस प्रदेश में रहनेवाले कबीलों की विस्तृत सूची बनाई और संविधानों का अध्ययन किया। इस प्रदेश को उस समय ग्रामणीय इलाका कहते थे क्योंकि इन कबीलों में, जैसा आज भी है और उस समय भी था, ग्रामणी शासन की प्रथा थी और ग्रामणी शब्द उनके नेता या शासक की पदवी थी। इन जातियों की शासनसभा को इस समय जिर्गा कहते हैं और पाणिनि के युग में उसे "ब्रातपूग", "संघ" या "गण" कहते थे। वस्तुत: सब कबीलों के शासन का एक प्रकार न था किंतु वे संघ शासन के विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में थे।
पाणिनि ने व्रात और पूग इन संज्ञाओं से बताया है कि इनमें से बहुत से कबीले उत्सेधजीवी या लूटपाट करके जीवन बिताते थे जो आज भी वहाँ के जीवन की सच्चाई है। उस समय ये सब कबीले या जातियाँ हिंदू थीं और उनके अधिपतियों के नाम संस्कृत भाषा के थे जैसे देवदत्तक, कबीले का पूर्वपुरुष या संस्थापक कोई देवदत्त था। अब नाम बदल गए हैं, किंतु बात वही है जैसे ईसाखेल कबीले का पूर्वज ईसा नामक कोई व्यक्ति था। इन कबीलों के बहुत से नाम पाणिनि के गणपाठ में मिलते हैं, जैसे अफरीदी और मोहमद जिन्हें पाणिनि ने आप्रीत और मधुमंत कहा है।
पाणिनि की भौगोलिक सूचियों में एक सूची जनपदों की है। प्राचीन काल में अपना देश जनपद भूमियों में बैठा हुआ था। मध्य एशिया की वंक्षु नदी के उपरिभाग में स्थित कंबोज जनपद, पश्चिम में सौराष्ट्र का कच्छ जनपद, पूरब में असम प्रदेश का सूरमस जनपद (वर्तमान सूरमा घाटी) और दक्षिण में गोदावरी के किनारे अश्मक जनपद (वर्तमान पेठण) इन चार खूँटों के बीच में सारा भूभाग जनपदों में बँटा हुआ था और लोगों के राजनीतिक और सामाजिक जीवन एवं भाषाओं का जनपदीय विकास सहस्रों वर्षों से चला आता था।