चंदौली के इस वटवृक्ष के नीचे 400 साल पहले बाबा कीनाराम करते थे तपस्या

 
चंदौली के इस वटवृक्ष के नीचे 400 साल पहले बाबा कीनाराम करते थे तपस्या
 

बाबा कीनाराम के 424 वें जन्मोत्सव समारोह के अवसर पर बाबा कीनाराम के आध्यत्मिक और सामाजिक सरोकार ये दर्शाता है औघरेश्वर महाप्रभु समाज के हर वर्ग को एक सूत्र में पिरोय


संत शिरोमणि अघोरेश्वर बाबा कीनाराम वास्तव में सामाजिक समरसता के मूर्त रूप थे। भेद-भाव, अस्पृश्यता, ऊंच- नीच और जमींदारी प्रथा के घोर विरोधी थे। वह समाज को समरसता के धागे में पिरोने का कार्य किया।

जमींदारों के विरूद्ध मोर्चा खोला, प्रथा समाज को एक नई नीति और नई दिशा की अलख जगाई। ऐसे में इस महान संत के कर्मभूमि को वह प्रणाम करते हैं और लोगों को बाबा के आदर्श विचारों को आत्मसात करने का आह्वान करते हैं। 

अघोरेश्वर महाराज बाबा कीनाराम सिद्ध संत थे और भगवान शिव के अवतार थे। अत्याचारी शासकों के विरुद्ध,जनता पर अत्याचार को समूल नष्ट करने का वीणा उठाया और समाज को समरसता का मार्ग प्रशस्त किया। 

जगत के उद्धार और समाज को नई दिशा की अलख जगाकर समाज में कुप्रभा, बाल विवाह, अंध विश्वास, कुरीतियों , ऊंच नीच के भेद-भाव का बहिष्कार कर स्वच्छ समाज को शक्ति व ऊर्जा प्रदान किया।


क्या है यह अघोर दर्शन?

वास्तव में अघोर दर्शन महज किसी धर्म, परंपरा, संप्रदाय, मत, पंथ या पथ के दायरे में बंधा हुआ कोई कर्मकांड या अनुष्ठान नहीं अपितु एक उन्मुक्त विचार-आचार है एक अवस्था का। इसे आप एक विशेष मानसिक स्थिति की संज्ञा भी दे सकते हैं।

अघोर दर्शन के आचार्यो द्वारा प्रतिपादित परिभाषाओं की कसौटी पर कस कर देखें तो यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की सर्वाधिक सहज किंतु सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। अलग- अलग देश, भाषा-भूषा तथा वेश के आधार पर दुनिया ने इसके साधकों को औघड़, अवधूत, कापालिक, सांकल्य, परमहंस, औलिया, मलंग, साई या फिर विदेह के स्वरूप में जाना-पहचाना है। साधारण तौर पर देखें तो अपनी-अपनी दृष्टि व सोच के मुताबिक उन्हें कभी संत तो कभी साक्षात भगवद रूप में पूजा व उनकी सत्ता को माना है।

उनके विचारों का वरण और पदचिह्नों का अनुसरण किया है। जब 'बाबा' ने माया रचाई, धुनि पुन: रमाई बाबा कीनाराम स्थल के रूप में इस 'सिद्ध भूमि' को मिली मर्यादा व मान्यता के चलते आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस तपस्थली का उद्भव बाबा कीनाराम के ही समय-काल का है मगर अघोराचार्य ने स्वयं प्रतिपादित किया है कि काशी के केदार खंड की यह 'दिव्य स्थली' अनादि काल से ही अनेक सिद्धों द्वारा पूजित व सेवित है।


बाबा किनाराम उत्तर भारतीय संत परंपरा के एक प्रसिद्ध संत थे, जिनकी यश-सुरभि परवर्ती काल में संपूर्ण भारत में फैल गई।

वाराणसी के पास चंदौली जिले के ग्राम रामगढ़ में एक कुलीन रघुवंशी क्षत्रिय परिवार में सन् 1601 ई. में इनका जन्म हुआ था। बचपन से ही इनमें आध्यात्मिक संस्कार अत्यंत प्रबल थे।

तत्कालीन रीति के अनुसार बारह वर्षों के अल्प आयु में, इनकी घोर अनिच्छा रहते हुए भी, विवाह कर दिया गया किंतु दो तीन वर्षों बाद द्विरागमन की पूर्व संध्या को इन्होंने हठपूर्वक माँ से माँगकर दूध-भात खाया। ध्यातव्य है कि सनातन धर्म में मृतक संस्कार के बाद दूध-भात एक कर्मकांड है। बाबा के दूध-भात खाने के अगले दिन सबेरे ही वधू के देहांत का समाचार आ गया। सबको आश्चर्य हुआ कि इन्हें पत्नी की मृत्यु का पूर्वाभास कैसे हो गया।

अघोर पंथ के ज्वलंत संत के बारे में ऐक कथानक प्रसिद्ध है,कि ऐक बार काशी नरेश अपने हाथी पर सवार होकर शिवाला स्थित आश्रम से जा रहे थे,उन्होनें बाबा किनाराम के तरफ तल्खी नजरों से देखा,तत्काल बाबा किनाराम ने आदेश दिया दिवाल चल आगे,इतना कहना कि दिवाल चल दिया और काशी नरेश की हाथी के आगे - आगे चलने लगा। तब काशी नरेश को अपने अभिमान का बोध हो गया और तत्काल बाबा किनाराम जी के चरणों में गिर गये।